ख्वाइशें जलती रही (गजल)
उठती रही चिंगारियाँ, दिल में अगन पलती रही
कुछ खाक सपने हो गए, कुछ ख्वाइशें जलती रही
करने उजागर जिंदगी, मैं ढूँढने सूरज चला
इक बार भी न हुई सुबह, शामें मगर ढलती रही
मुश्किल सफर, सौ रासते, धुंदले सभी, जाता कहाँ
गुमराह करके, दूर मुझसे मंजिले चलती रही
अंजान सी इस भीड में ना दोस्त, ना अपने मिले
बहला सकी ना महफिलें, तनहाइयाँ छलती रही
पौधे गुलाबों के लगाए, खुशबुओं की चाह में
बरसे न बादल, बाग काटों से सदा खिलती रही
शतरंज में संसार की सीखे न टेढे पैंतरे
चलता गया हर चाल सीधी, मात ही मिलती रही
-अनामिक
(१५/१२/२०१० - १९/१२/२०१०)
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